मंगलेश डबराल हिंदी भाषा के कवि तथा पत्रकार एवं संपादक थे। वह जनसत्ता से काफी समय से जुड़े रहे. वर्ष २००० में इन्हे साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया. इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं – पत्थर पर लालटेन, घर का रास्ता (2001), हम जो देखते हैं, आवाज़ भी एक जगह है, लेखक की रोटी , कवि का अकेलापन (2008) इत्यादि। 9 दिसम्बर 2020 को इनका दुनिया से चले जाना साहित्य और पत्रकारिता दोनों ही की दुनिया को झकझोर देता है।
पेश है मंगलेश डबराल की स्मृति में उनकी कुछ कविताएं –
अपनी तस्वीर
यह एक तस्वीर है
जिसमें थोड़ा-सा साहस झलकता है
और ग़रीबी ढँकी हुई दिखाई देती है
उजाले में खिंची इस तस्वीर के पीछे
इसका अँधेरा छिपा हुआ है
इस चेहरे की शांति
बेचैनी का एक मुखौटा है
करुणा और क्रूरता परस्पर घुलेमिले हैं
थोड़ा-सा गर्व गहरी शर्म में डूबा है
लड़ने की उम्र जबकि बिना लड़े बीत रही है
इसमें किसी युद्ध से लौटने की यातना है
और ये वे आँखें हैं
जो बताती हैं कि प्रेम जिस पर सारी चीज़ें टिकी हैं
कितना कम होता जा रहा है
आत्ममुग्धता और मसखरी के बीच
कई तस्वीरों कि एक तस्वीर
जिसे मैं बार-बार खिंचवाता हूँ
एक बेहतर तस्वीर खिंचने की
निरर्थक-सी उम्मीद में
छुओ
उन चीजों को छुओ
जो तुम्हारे समाने टेबल में रखी है
घड़ी कलमदान एक पुरानी चिट्ठी
बुद्ध की प्रतिमा
ब्रेटोलट ब्रेस्ट
चेग्वेरा की तस्वीरें
दराज खोलकर उसकी पुरानी उदासी को छुओ
एक खाली कागज को छुओ
शब्दों की अंगुलियों से
वैनगोग की पेंटिंग के स्थिर जल को
एक कंकड़ की तरह छुओ
जो उस पर जीवन की हलचल शुरू कर देता है।
अपने माथे को छुओ
और देर तक उसे थामे रहने में
शर्म महसूस मत करो
छूने के लिए जरूरी नहीं
कोई बिल्कुल पास मैं बैठा हो
दूर से भी छूना सम्भव है
उस चिड़िया की तरह
दूर से ही जो अपने अंडों को सेती रहती है
कृपया छुएं नहीं
या छूना मना हैजैसे
वाक्यों पर विस्वास मत करो
यह लम्बे समय से चला आ रहा एक षड्यन्त्र है
तमाम धर्म गुरु ध्वजा, पताका, मुकुट, उत्तरीय धारी
बमबाज जंगखोर सबको एक दूरसे से दूर रखने के पक्ष में हैं
वे जितनी गंदगी जितना मलवा उगलते हैं
उसे छू कर ही साफ किया जा सकता है
इसलिए भी छुओ
भले ही इससे चीजें उलट पुलट हो जाएं
इस तरह मत छुओ जैसे
जैसे भगवान, महंत, मठाधीश, भक्त , चेले
एक दूसरे के सर और पैर छूते हैं
बल्कि ऐसे छुओ
जैसे लम्बी घासें चांद तारों को छूने छूने को होती हैं
अपने भीतर जाओ और एक नमी को छुओ।
देखो वह बची हुई है या नहीं
इस निर्मम समय में
इन सर्दियों में
पिछली सर्दियाँ बहुत कठिन थीं
उन्हें याद करने पर मैं सिहरता हूँ इन सर्दियों में भी
हालाँकि इस बार दिन उतने कठोर नहीं
पिछली सर्दियों में चली गई थी मेरी माँ
खो गया था मुझसे एक प्रेमपत्र छूट गई थी एक नौकरी
रातों को पता नहीं कहाँ भटकता रहाकहाँ कहाँ करता रहा टेलीफोन
पिछली सर्दियों मेंमेरी ही चीजें गिरती रही थीं मुझ पर
इन सर्दियों में
निकालता हूँ पिछली सर्दियों के कपड़े
कंबल टोपी मोजे मफलरदेखता हूँ उन्हें गौर से
सोचता हुआ बीत गया है पिछला समयये सर्दियाँ क्यों होगी मेरे लिए पहले जैसी कठोर
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